सरकारी फाइलों में चरती रही गाय-भैंस, असल में गायब थे वन गुर्जर!
रोशनी पांडे – प्रधान संपादक
रामनगर, 17 जून 2025
(विशेष रिपोर्ट)
कॉर्बेट नेशनल पार्क की झिरना रेंज से एक ऐसा मामला सामने आया है जिसने वन विभाग की कार्यशैली और पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक ओर सरकार जहां वन गुर्जरों के पुनर्वास और विस्थापन को लेकर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय अधिकारियों और कर्मचारियों की मिलीभगत से एक बड़ा फर्जीवाड़ा वर्षों से जारी था।
🔎 क्या है पूरा मामला?
कॉर्बेट पार्क के झिरना रेंज में कभी 24 वन गुर्जर परिवारों को निवास की अनुमति दी गई थी। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि इनमें से लगभग 18 परिवार वर्षों पहले ही झिरना रेंज को छोड़ चुके थे और उत्तर प्रदेश के अमानगढ़ रेंज या फिर उत्तराखंड के तराई पश्चिमी डिवीजन में स्थानांतरित हो चुके थे। केवल 6 परिवार ही झिरना में वास्तविक रूप से निवास कर रहे थे।
इसके बावजूद सरकारी दस्तावेजों में इन सभी 24 परिवारों के नाम बने रहे और झिरना रेंज में उनके पशुओं (गाय-भैंस) के नाम पर “मुँह चूगान शुल्क” यानी चराई शुल्क भी जमा होता रहा। यानी गाय-भैंस झिरना में नहीं थीं, लेकिन कागज़ों में चरती रहीं, और अधिकारियों ने उनसे शुल्क भी वसूला।
💰 विस्थापन के नाम पर करोड़ों की साजिश!
सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि उक्त फर्जी वन गुर्जर परिवारों ने विस्थापन के लिए सुप्रीम कोर्ट से स्टे तक ले रखा था। मकसद था सरकार से जमीन या मुआवज़ा हासिल करना।
लेकिन जब विस्थापन के लिए कॉर्बेट प्रशासन की टीम मौके पर पहुंची, तो सिर्फ 6 परिवार ही झिरना रेंज में निवास करते पाए गए, बाकी 18 परिवार वर्षों पहले ही झिरना छोड़ चुके थे। इस जांच से बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया और सरकार को करोड़ों रुपये के नुकसान से बचा लिया गया।
🏚️ कैसे रचा गया यह खेल?
जानकारों का कहना है कि एक वन गुर्जर आमतौर पर 4-5 झोपड़ियों में अपना निवास फैलाता है। जब भी सर्वे टीम झिरना आती, तो ये शातिर गुर्जर हर झोपड़ी को एक अलग परिवार दिखाकर गिनती पूरी करवा देते थे। स्थानीय अधिकारी और कर्मचारी इस सच्चाई से अवगत थे, लेकिन मिलीभगत के चलते आंखें मूंदे रहे।
🔄 फिर से साजिश की तैयारी?
विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, अब झिरना रेंज छोड़ चुके ये ही गुर्जर परिवार फिर से झिरना में छप्पर डालने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि पुनः दस्तावेज़ों में दर्ज होकर विस्थापन का लाभ उठा सकें। इसमें स्थानीय अधिकारियों और कर्मचारियों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं।
⚠️ घोटालों की परंपरा?
गेंडी खत्ता गुर्जर बस्ती में पहले भी विस्थापन को लेकर घोटाले के आरोप लग चुके हैं, जहाँ उत्तर प्रदेश के कई वन गुर्जरों ने फर्जी तरीके से विस्थापन सूची में अपने नाम दर्ज करवा लिए और अब वे जमीनों के मालिक बन बैठे हैं।
📢 अब सवाल ये हैं—
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झिरना छोड़ चुके वन गुर्जरों को दस्तावेजों में क्यों दिखाया गया?
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मुँह चूगान शुल्क वर्षों तक क्यों वसूला जाता रहा?
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स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत पर कार्यवाही कब होगी?
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क्या सरकार को फिर किसी बड़े घोटाले का शिकार बनाया जा रहा है?
👉 फिलहाल जनता और पर्यावरण प्रेमियों की निगाहें कॉर्बेट प्रशासन पर टिकी हैं। अब देखना होगा कि क्या दोषी अधिकारियों और कर्मचारियों पर कोई ठोस कार्रवाई होती है या यह मामला भी फाइलों में ही चरता रहेगा।